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Vatan Gaur vs State Of U.P. And Another

High Court Of Judicature at Allahabad|29 January, 2021

JUDGMENT / ORDER

01 ग्रेटर नोएडा (संक्षेप में औ0वि0प्रा0ग्रे0नो0) औद्योगिक विकास प्राधिकरण, की ओर से शिकायतकर्ता डी0पी0 श्रीवास्तव, सहायक, प्रबन्धक, वर्क सर्किल 4 औ0वि0प्रा0ग्रे0नो0 ने एक प्रथम सूचना रिपोर्ट, मै0 एक्टिव इक्विपमेन्ट प्रा0लि0 द्वारा सोनित्य कुमार व अन्य के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 188, 288 व 420 व सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984 की धारा 3 व आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 1932 की धारा 7 के अंतर्गत इस आशय से दर्ज कराई कि "ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण के अधिसूचित क्षेत्र के अंतर्गत ग्राम शाहबेरी के खसरा संख्या 158अ, 207 कृषि उपयोगी भूमि पर बिना मानचित्र स्वीकृति कराये अथवा ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण की अनुमति प्राप्त किए बिना, असुरक्षित व भवन विनियमावली में दिए गए प्राविधानों के विरुद्ध बहुमंजिले भवनों/फ्लैट्स का निर्माण कर लिया गया है/किया जा रहा है, जो असुरक्षित है, जिसमें कभी भी दुर्घटना हो सकती है, जिससे जान-माल की भारी क्षति होने की संभावना है। उक्त निर्मित फ्लैट्स को आबादी में निर्मति फ्लैट्स बता कर भोली-भाली जनता को धोखाधड़ी कर विक्रय किया गया है/विक्रय किया जा रहा है। उक्त कार्य संगठित रुप से अपने अन्य साथियों के साथ आर्थिक लाभ हेतु कृषित भूमि को क्षति पहुँचाते हुए बड़े पैमाने पर निर्माण कराया जा रहा है, जिसे नगर के लोगों में भय एवं आतंक व्याप्त है तथा जिस कारण लोक व्यवस्था प्रभावित हो रही है तथा सुनियोजित विकास प्रभावित हो रहा है। अवैध निर्माणकर्ताओं का विवरण निम्न प्रकार है। क्र0सं0 ग्राम का नाम खसरा सं0 अवैध निर्माणकर्ता का नाम व पता 1. शाह बेरी 158अ, 207 मे0 एक्टिव इक्विपमेन्ट प्रा0लि0 द्वारा सोनित्य कुमार, पता-88 जयपुरिया एन्कलेव, कौशाम्बी, गाजियाबाद, अतः भोली-भाली जनता को धोखाधड़ी कर आर्थिक नुकसान से बचाये जाने एवं असुरक्षित अनाधिकृत निर्माण के कारण भारी जान-माल के नुकसान को रोके जाने हेतु उपरोक्त निर्माण कर्ताओं के विरुद्ध एफ0आई0आर0 दर्ज करते हुए आवश्यक कार्यवाही करने का कष्ट करें।"
1.02 विवेचना के उपरान्त, जांच अधिकारी द्वारा अभियुक्त दीपक कुमार उर्फ दीपक त्यागी, दिव्यांका होम्स प्रा0लि0 के विरुद्ध भा0दं0सं0 की धारा 288 व 420 के अंतर्गत आरोप पत्र 30.05.2019 को सक्षम न्यायालय को प्रेषित कर दिया गया।
1.03 पत्रावली के अवलोकन से यह विदित होता है कि इसी प्रकरण में प्रभारी पुलिस अधिकारियों द्वारा विवेचनात्मक कार्यवाही की समीक्षा किया जाने पर पुनः गहनता से विवेचना कराये जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, अतः वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गौतम बुद्ध नगर ने अपने आदेश दिनांक 09.12.2019 के द्वारा प्रकरण में धारा 173(8) दं0प्र0सं0 के अन्तर्गत अग्रेतर विवेचना किसी कुशल विवेचक को आवंटित करने के आदेश, थाना प्रभारी विसरख, गौतम बुद्ध नगर को प्रेषित किया गया।
1.04 इस क्रम में विवेचक ने अग्रेतर विवेचना के उपरान्त अनुपूरक आरोप पत्र दिनांक 04.06.2020 को आवेदक वतन गौड़ व सोनित्य कुमार के विरुद्ध भा0दं0सं0 की धारा 420, 188, 288 व सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम की धारा 3 आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 1932 के अंतर्गत साक्षम न्यायालय को प्रेषित किया गया।
1.05 सक्षम न्यायालय द्वारा उपरोक्त वर्णित अनुपूरक आरोप पत्र पर आदेश दिनांक 03.07.2020 द्वारा, अवलोकन के उपरान्त संज्ञान लिया व अभियुक्तगण/आवेदक के विरुद्ध सम्मन जारी करने का आदेश भी दिया।
आक्षेपित आदेश-
2. आवेदक वतन गौड़ द्वारा वर्तमान आवेदन जो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अन्तर्गत इस न्यायालय में दाखिल की गई, उपरोक्त वर्णित अनुपूरक आरोप पत्र दिनांक 04.06.2020 व आदेश दिनांक 03.07.2020 (संज्ञान व सम्मन आदेश) आक्षेपित किये गये हैं।
आवेदक के पक्ष में कथन:-
3. आवेदक के पक्ष में श्री गोपाल स्वरुप चतुर्वेदी, वरिष्ठ अधिवक्ता व सहायक कु0 सौम्या चतुर्वेदी अधिवक्ता ने पुर जोर बहस की व कथन किया-
3.01 आरोप पत्र में वर्णित अपराधों को आवेदक के द्वारा घटित होना विवेचक द्वारा की गयी विवेचना के द्वारा स्थापित नहीं होता है। आवेदक के विरुद्ध लगाये गये सभी आरोप अस्पष्ट व बेबुनियाद है। विवेचना अनौपचारिक ढंग से करी गई है व सक्षम न्यायालय ने न्यायिक विवेक का उपयोग किये बिना आरोप पत्र का संज्ञान लिया है व यांत्रिक रुप से आवेदक के विरुद्ध सम्मन का आदेश पारित किया है।
3.02 वरिष्ठ अधिवक्ता ने यह भी कथन किया है कि आवेदक के विरुद्ध धारा 420 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत कोई अपराध नहीं बनता है। प्रकरण में ऐसा कोई भी साक्ष्य पत्रावली पर नहीं है कि आवेदक ने किसी के साथ कोई छल किया हो या आवेदक द्वारा किसी ऐसे प्रवंचित व्यक्ति को बेइमानी से उत्प्रेरित कर उक्त व्यक्ति द्वारा कोई संपत्ति का या किसी भी मूल्यवान प्रतिभूति का परिदत्त किया गया हो। वर्तमान प्रकरण में भा0दं0सं0 की धारा 420 के घटक उपस्थित नहीं है।
3.03 वरिष्ठ अधिवक्ता ने आगे यह भी कथन किया कि वर्तमान प्रकरण में न तो कोई निर्माण गिराया गया है न ही उसकी मरम्मत करी गई है अतः आवेदक ने धारा 288 भा0दं0सं0 के अंतर्गत कोई अपराध कारित नहीं किया है और न ही आवेदक ने लोक सेवक द्वारा सम्यक रुप से प्रख्यापित किसी आदेश की अवज्ञा ही की है। आवेदक के विरुद्ध किसी लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने के कृत का कोई भी साक्ष्य नहीं है।
3.04 वरिष्ठ अधिवक्ता से आगे कथन किया कि विवेचना की सामान्य दैनिकी विवरण में रोजनामचा दिनांक 29.05.2019 में विवेचक ने स्पष्ट रुप से व्यक्त किया है अभियोग में धारा 3 भा0सं0 नु0निवा0अधि0, धारा 7 सी एल ए एक्ट व धारा 188 भा0दं0सं0 का होना नहीं पाया गया तथा अग्रिम विवेचना धारा 288, 420 भा0दं0सं0 में संपादित की जायेगी। फिर भी विलोपित धाराओ में आरोप पत्र प्रेषित किया गया। इससे यह दृष्टि गोचर होता है कि वर्तमान प्रकरण में विवेचना सरसरी तौर पर की गयी है। अतः वर्तमान आवेदन स्वीकार किया जाये।
4. शिकायतकर्ता का पक्ष अंजली उपाध्याय अधिवक्ता ने रखा, उन्होंने कहा उत्तर प्रदेश सरकार ने शाहबेरी गाँव उत्तर प्रदेश औद्यौगिक क्षेत्र विकास अधिनियम के अन्तर्गत एक अधिसूचित गांव घोषित किया है। अतः कोई भी भवन निर्माण प्राधिकरण की पूर्व अनुमति के बिना नहीं हो सकता है। प्रकरण में पञ्चायती भूमि के सम्बन्ध में भूमि अधिकर्जन अधिनियम की धारा 4 व 6 के अन्तर्गत अधिसूचना जारी की जा चुकी है जिस पर इस न्यायालय द्वारा यथा स्थिति बनाये रखने का आदेश पारित किया है। अतः आवेदक द्वारा उक्त भूमि पर भवन निर्माण कराने का कृत न्यायालय की अपभावना का मामला भी है। प्राधिकरण ने आवेदक को भवन निर्माण करने के लिये कोई सहमति/अनुमति/स्वीकृत नहीं दी है। अतः आवेदन निरस्त किया जायें। अपने पक्ष से समर्थन में लिखित बहस भी दाखिल की है जो पूर्व में उल्लेखित कथन की पुनरावृत्ति है।
5. वैभव आनन्द, अतिरिक्त शासकीय अधिवक्ता ने कहा कि इस न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। वर्तमान प्रकरण में आवेदक प्रश्नगत भूमि का स्वामी है उसके निर्देश पर ही उक्त भूमि पर भवन निर्माण किया गया है जो अवैधानिक है। प्रकरण में वर्णित धाराओं के अन्तर्गत अपराध घटित हुआ है तथा ऐसी परिस्थितियां नहीं है जहाँ दं0प्र0सं0 के अन्तर्गत किसी आदेश को प्रभावी कराना हो या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करना हो या न्याय के उदेश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने की आवश्यकता हो अतः वर्तमान आवेदन निरस्त किया जाना चाहिये।
विश्लेषण:-
6. उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियां 6.01 भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, की धारा 482, उच्च न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों की व्यावृत्ति के प्रावधान के सम्बंध में है जो निम्न है ;-
"इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अन्तर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिए या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिए या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो।"
6.02. उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को इस संहिता के किसी प्रावधान से सीमित नहीं किया जा सकता है। यह वो अंतर्निहित शक्तियां हैं, जो इस संहिता के तहत किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिए, या किसी न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिए या अन्यथा सुरक्षित करने के लिए या न्याय की प्राप्ति के लिए आवश्यक हों। यह शक्तियां इस संहिता के तहत उच्च न्यायालय को नहीं प्राप्त होती हैं, बल्कि यह शक्तियां उच्च न्यायालय में अन्तर्निहित हैं, जिसे मात्र संहिता के एक प्रावधान द्वारा घोषित किया गया है।
6.03. उच्चतम न्यायालय ने कई विधिक दृष्टांत में यह प्रतिपादित किया है , कि इन शक्तियाँ का दायरा व्यापक है, परंतु इनका उपयोग संयम एवम् सावधानीपूर्वक ही किया जाना चाहिए। इसके उपयोग से किसी भी वैधानिक अभियोजन की आकस्मिक मृत्यु नहीं की जा सकती है।
6.04. इस धारा के तहत निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए ये जाँचने के लिये की कोई प्राथमिकी किसी प्रथमदृष्ट्या संज्ञेय अपराध को प्रकट करती है या नहीं , उच्च न्यायालय ना तो किसी जाँच संस्था और ना ही अपीलीय न्यायालय की तरह कार्य कर सकता है। इन शक्तियों के अन्तर्गत किसी साक्ष्य की प्रमाणिता की जाँच नहीं की जा सकती है, क्योंकि, इसका क्षेत्राधिकार उस न्यायालय का है, जिसके द्वारा परीक्षण किया जा रहा है या किया जायेगा ।अन्वेषण के दौरान या आरोप पत्र दायर होने पर उच्च न्यायालय इस पहलू को भी नहीं देख सकता है कि आरोपी की ओर से मामले में अपेक्षित मानसिक तत्त्व या आशय मौजूद था या उसका क्या बचाव है और न ही धारा १६१ के तहत अभिलेखित बयानों का आँकलन कर आरम्भिक स्तर पर ही किसी परीक्षण को विफल कर सकता है।
6.05. उच्चतम न्यायालय ने बहुधा कहा है कि वो परिस्थितियॉ जिनके होने पर इन अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है, उसकी कोई संपूर्ण सूची तो नहीं बनायी जा सकती, परन्तु कुछ क्षेणियॉं उदाहरणार्थ निम्नलिखित है:-
क) जहां प्राथमिकी या शिकायत में लगाए गए आरोप को अगर उनके प्रत्यक्ष रुप में माना जाये और संपूर्णता में स्वीकार किया जाये, तब भी, अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनता है;
ख) जहां प्राथमिकी और संलग्न सामग्रियो (यदि कोई हो,), एक संज्ञेय अपराध को उद्दााटित नहीं करते हैं, तथा संहिता की धारा 156 (1) के तहत पुलिस अधिकारियों द्वारा अन्वेषण करने का कोई औचित्य साबित न होता हो;
ग) जहां प्राथमिकी या 'शिकायत में लगाए गए अविवादित आरोप और उसके समर्थन में एकत्र किए गए साक्ष्य किसी भी अपराध के कृत्य का होना प्रकट नहीं होता हैं और आरोपी के विरूद्ध कोई भी प्रकरण नहीं बनता हैं;
घ) जहां प्राथमिकी में आरोप संज्ञेय अपराध निर्मित नहीं करते हैं व केवल गैर-संज्ञेय अपराध निर्मित करते हैं, पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी जांच की अनुमति नहीं है जैसा कि संहिता की धारा 155 (2) के तहत परिकल्पित है;
ड) जहां प्राथमिकी या शिकायत में लगाए गए आरोप इतने असंगत और स्वाभाविक रूप से असंभव हैं जिनके आधार पर कोई भी विवेकशील व्यक्ति कभी भी न्यायसंगत निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता है कि अभियुक्त के खिलाफ कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद है;
च) जहां किसी संहिता या संबंधित अधिनियम (जिसके तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू की गई है) के किसी भी प्रावधान के तहत कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत या जारी रहने पर कानूनी निषेध लगाया गया हो, और/या जहां संहिता या संबंधित अधिनियम के प्रावधान,पीड़ित पक्ष की शिकायत के लिए प्रभावी प्रतिकार प्रदान करते हो ।
छ) जहां आपराधिक कार्यवाही स्पष्टतः दुर्भावनापूर्ण हो और/या जहां कार्यवाही विद्वेषपूर्ण रूप से आरोपी से अधिक प्रतिशोध लेने के लिए , परोक्ष उद्देश्य से की जाती है और जिसका लक्ष्य, निजी और व्यक्तिगत शिकायत के कारण उसे अपमानित करना हो। आपराधिक शिकायत को तब भी समाप्त किया जा सकता है जब मामला अनिवार्य रूप से दीवानी प्रकृति का हो और उसे एक अपराधिक अपराध का रूप दिया गया हो यदि कथित अपराध के तत्व, शिकायत में प्रथम दृष्टया भी उपलब्ध न हो।क्योंकि इस तरह की कार्यवाही जारी रखने पर न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
7. प्रकरण में उल्लेखित अपराध के विवरण निम्न है "420.-छल करना और संपत्ति परिदत्त करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करना- जो कोई छल करेगा, या तद्द्वारा उस व्यक्ति को, जिसे प्रवंचित किया गया है, बेईमानी से उत्प्रेरित करेगा कि वह कोई संपत्ति किसी व्यक्ति को परिदत्त कर दे, या किसी भी मूल्यवान प्रतिभूति को या किसी चीज को, जो हस्ताक्षरित या मुद्रांकित है, और जो मूल्यवान प्रतिभूति में संपरिवर्तित किये जाने योग्य है पूर्णतः या अंशत: रच दे, परिवर्तित कर दे, या नष्ट कर दे, वह दोनो में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और वह जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
188. लोकसेवक द्वारा सम्यक् रुप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा- जो कोई यह जानते हुए कि वह ऐसे लोक-सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश से, जो ऐसे आदेश को प्रख्यापित करने के लिए विधिपूर्वक सशक्त है, वह कोई कार्य करने से विरत रहने के लिए या अपने कब्जे में की, या अपने प्रबंधाधीन, किसी संपत्ति के बारे में कोई विशेष व्यवस्था करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है, ऐसे निदेश की अवज्ञा करेगा ।
यदि ऐसी अवज्ञा विधिपूर्वक नियोजित किन्ही व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ, या क्षति, अथवा बाधा क्षोभ या क्षति की जोखिम, कारित करे, या कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, तो वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि एक मास तक की हो सकेगी, या जुमार्ने से, जो दो सौ रुपये तक का हो सकेगा, या दोनो से ,दंडित किया जाएगा।
और यदि ऐसी अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य, या क्षेम को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, या बल्वा या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, तो वह दोनो में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि छ: मास तक की हो सकेगी, या जुमार्ने से, जो एक हजार रूपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दंडित किया जाएगा ।
स्पष्टीकरण- यह आवश्यक नहीं है कि अपराधी का आशय अपहानि उत्पन्न करने का हो या उसके ध्यान में यह हो कि उसकी अवज्ञा करने से अपहानि होना संभाव्य है। यह पर्याप्त है कि जिस आदेश की वह अवज्ञा करता है उस आदेश का उसे ज्ञान है, और यह भी ज्ञान है कि उसके अवज्ञा करने से अपहानि उत्पन्न होती या होनी संभाव्य है।
288. किसी निर्माण को गिराने या उसकी मरम्मत करने के सम्बध में उपेक्षापूर्ण आचरण- जो कोई किसी निर्माण को गिराने या उसकी मरम्मत करने में उस निर्माण की ऐसी व्यवस्था करने का, जो उस निर्माण के या उसके किसी भाग के गिरने से मानव जीवन को किसी अधिसम्भाव्य संकट से बचाने के लिये पर्याप्त हो जानते हुये या उपेक्षापूर्वक लोप करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से जो एक हजार रुपये तक का हो सकेगा, या दोनों से दण्डित किया जायेगा।
3. लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि-(1) जो कोई उपधारा (2) में निर्दिष्ट प्रकार की लोक संपत्ति से भिन्न किसी लोक संपत्ति की बाबत कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि पांच वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से, दण्डित किया जाएगा।
(2) जो कोई ऐसी किसी संपत्ति की बाबत जो-
(क) कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति है, जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या ऊर्जा के उत्पादन, वितरण या प्रदान के संबंध में किया जाता है;
(ख) कोई तेल प्रतिष्ठान है;
(ग) कोई मल संकर्म है;
(घ) कोई खान या कारखाना है;
(ङ) लोक परिवहन या दूर-संचार का कोई साधन है या उसके संबंध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति है, कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, वह कठोर कारावास से, जिसकी अवधि छह मास से कम की नहीं होगी किन्तु पांच वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से, दण्डित किया जाएगा:
परन्तु न्यायालय, ऐसे कारणों से जो उसके निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, छह मास से कम की किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश दे सकेगा।"
8. प्रकरण में सर्वप्रथम यह विचार करना है कि तथ्यों व परिस्थितियों में आरोप पत्र में वर्णित अपराध क्या प्रथम दृष्टया प्रकट होते या नहीं?
8.01 पत्रावली पर उपस्थित दस्तावेज व प्रतिद्वंदी बहस से यह विदित है कि आवेदक प्रश्नगत भूमि का भूस्वामी है। जिसमें सहअपराधियों के संग व सहमति से उक्त भूमि पर बहुमंजिला भवन का निर्माण किया व करवाया है, जिसके लिए आवश्यक वैधानिक अनुमति प्राप्त नहीं की गयी है तथा इस न्यायालय के यथा स्थिति के आदेश के होते हुए भी भवन निर्माण करके अवमानना का भी मामला बनता प्रतीत होता है। आवेदक के वरिष्ठ अधिवक्ता पत्रावली पर भवन निर्माण के लिये आवश्यक अनुमति/सहमति/स्वीकृति दिखाने में असफल रहे हैं।
8.02 धारा 288 भा0दं0सं0 के अंतवस्तु का ध्यानपूर्वक अवलोकन से यह विदित है कि यह धारा किसी निर्माण को गिराने या उसकी मरम्मत करने के सम्बंध में किसी अधिसम्भाव्य संकट से बचाने की व्यवस्था में उपेक्षापूर्ण आचरण को अपराध बनाता है। वर्तमान प्रकरण में प्रश्नगत भवन की निर्माण सम्बन्धी कोई वैधानिक सहमति या स्वीकृति न होने के कारण उस निर्माण के गुणवत्ता की पुष्टि नहीं की जा सकती है। यह भी विदित है आवेदक ने सहअपराधी के साथ समझौता कर भवन का निर्माण कराया है। अतः यह कहा जा सकता है कि निर्माण के किसी भाग के गिरने की अधिसम्भाव्य संकट से बचाने की व्यवस्था की उपेक्षा की है। अब प्रश्न यह है कि क्या किसी 'निर्माण' की 'मरम्मत' करने में 'नवीन निर्माण' भी सम्मिलित है की नहीं। मरम्मत करवाने का तात्पर्य केवल मरम्मत करवाना नहीं हो सकता इसके अंतर्गत सभी प्रकार के नवीन निर्माण भी आवश्यक रुप से शामिल होते है, अतः आवेदक भूमि का स्वामी है और उसकी सहमति से ही सह अपराधियों द्वारा भवन का निर्माण कराया गया है तथा अधिसम्भाव्य संकट से बचाने के लिये कोई भी वैधानिक व आवश्यक स्वीकृति प्राप्त नहीं करी। अतः धारा 288 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत उसके विरुद्ध भी प्रथम दृष्टया अपराध बनता है। वर्तमान प्रकरण में प्रथम दृष्टया धारा 288 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत अपराध कारित किया जाना प्रदर्शित होता है।
8.03 पत्रावली पर उपस्थित दस्तावेज यह दर्शाते है कि भूमि पर निर्मित भवन में बने फ्लेट्स को ग्राहकों को बेचा गया है। उनके साथ पंजीकृत करारनामें का भी उल्लेख है। अतः यह विदित है कि आवेदक ने यह जानते हुए भी कि भवन का निर्माण गैरकानूनी है, छल करके ग्राहकों को बेइमानी से फ्लेट्स की पंजीकरण, मूल्य लेकर लिया। इस अपराध के लिये शिकायतकर्ता का स्वयं पीड़ित होना आवश्यक नहीं है। आवेदक का आशय प्रारम्भ से ही छल करने का था। अतः वर्तमान प्रकरण में धारा 420 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत भी प्रथम दृष्टया अपराध दृष्टिगत होता है।
8.04 धारा 415 भा0दं0सं0 ''छल' को परिभाषित करती है, जिसके अनुसार यदि कोई किसी व्यक्ति को कपट पूर्वक या बेइमानी से उत्प्रेरित कर प्रवंचित करता है जिसके कारण ऐसा कार्य या लोप उस व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, ख्याति संबंधी या सांपत्तिक नुकसान या अपहानि कारित होनी संभाव्य भी हो तो वह व्यक्ति छल करता है। वर्तमान प्रकरण में आवेदक ने सह आपरिधियों के संग ऐसा भवन/फ्लैट्स का निर्माण किया या करवाया है, जिसकी न तो कोई स्वीकृति न सहमति और न ही कोई अनुमति है अतः निर्माण पूर्ण रुप से अवैध है, और ऐसी जानकारी होने के बावजूद आवेदक ने कपट पूर्वक और बेईमानी करके भोले भाले ग्राहकों से छल करके उन्हे ये अवैध फ्लैट्स मूल्य के बदले बेचे। अतः वर्तमान प्रकरण में धारा 415 भा0दं0सं0 के सभी घटक प्रथम दृष्टया उपस्थित है।
8.05 धारा 188 भा0दं0सं0 के अनुसार लोक सेवक द्वारा सम्यक रुप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा अपराध है। आवेदक ने ऐसे भवन का निर्माण किया है। जिसके लिए कोई भी सहमति या अनुमति नहीं दी गई है तथा ऐसा करने से मानव जीवन को संकट हो सकता है। जो, लोकसेवक द्वारा समय-समय पर प्रख्यापित आदेशों का अवेज्ञा है, अतः आवेदक के विरुद्ध धारा 188 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत भी प्रथम दृष्टया अपराध दृष्टि गोचर होता है।
8.06 सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984 की धारा 3 के अंतर्गत लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि के अपराध होने पर सजा का प्रावधान वर्णित किया गया है। वर्तमान प्रकरण में प्रश्नगत भूमि शिकायतकर्ता ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के कब्जे/नियन्त्रण में है व उस पर यथा स्थिति बनाये रखे रहने का आदेश लंबित है, फिर भी आवेदक ने इस पर सह अपराधी के संग बिना किसी अनुमति से निर्माण किया अतः उपरोक्त धारा के अन्तर्गत भी प्रथमदृष्टया अपराध दृष्टिगत होता है।
9. जैसा पूर्व में उल्लेखित किया गया है कि उच्च न्यायालय को उसकी अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग संयम व सावधानी पूर्वक ही करना चाहिये। अगर प्राथमिकी व विवेचना के दौरान एकत्र किये गये साक्ष्य अपराध के कृत्य को प्रथम दृष्टतया प्रकट करते है तो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी वैधानिक अभियोजन को आकस्मिक मृत्यु प्रदान नहीं की जानी चाहिए। पूर्व में विश्वेलषण किया गया है कि वर्तमान प्रकरण में आवेदक के विरुद्ध लगाये गये सभी अपराधों में उसके सभी कारक प्रथम दृष्टया उपलब्ध है तथा आक्षेपित आदेश (आरोप पत्र का संज्ञान व आवेदक को सम्मन) अवर न्यायालय द्वारा न्यायिक विवेक का उपयोग करते हुए विधिनुसार पारित किये गये हैं, अतः वर्तमान प्रकरण में अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
10. अतः आवेदन निरस्त किया जाता है।
आदेश दिनांक:-29.01.2021 अवधेश
Disclaimer: Above Judgment displayed here are taken straight from the court; Vakilsearch has no ownership interest in, reservation over, or other connection to them.
Title

Vatan Gaur vs State Of U.P. And Another

Court

High Court Of Judicature at Allahabad

JudgmentDate
29 January, 2021
Judges
  • Saurabh Shyam Shamshery